धूल भरी जिंदगी
ये कहानी है शंकर लाल की और उससे जुड़ी जिंदगी की। यूँ तो शंकर लाल दसवीं ही पास था मगर था बड़े ही सुलझे हुये विचारों का। मगर जाने क्यों जिंदगी उससे सदा खफ़ा सी रही। वो बचपन से ही जिंदगी को मेहनत के बल जीतने के ख्वाब देखा करता था। उसके पिता एक नेक इंसान थे। वो रात को अक्सर शंकर को कहानिया सुनाकर समझाते थे की इंसान में अगर हालात से लड़ने का जज्बा हो तो कभी असफल नहीं हो सकता। मगर उसके पिताजी ने जल्दी ही लंबी बीमारी के आगे घुटने टेक दिये और उसका साथ बचपन में ही छोड़ गए। उसके खेलने कूदने के वक़्त में छोटे से कंधों पर अब परिवार चलाने की जिम्मेदारी थी। मुश्किल दौर में उसके मामा ने उसे अपने साथ काम पर रखकर परिवार को कुछ सहारा दिया। पढ़ने के तमाम सपने अब खाक हो चुके थे। शंकर को भी ज़िम्मेदारी का एहसास हो चला था। वो मन लगा कर मामा के साथ मजदूरी पर जाया करता और एक-एक रुपया जोड़कर हर महीने माँ को दिया करता।
शंकर बड़ा हुआ तो माँ अक्सर बीमार रहने लगी। माँ पर बुढापे का असर दिखाई देने लगा था। मामा ने सोचा की अब शंकर की शादी कर देनी चाहिए। मामा के पूछने पर शंकर ने बताया की वो चाहता है की उसकी शादी किसी पढ़ी लिखी लड़की से हो। शायद जो शंकर कर नहीं पाया वो होने वाली पत्नी में कहीं तलाश कर रहा था। उसकी शादी उसके मामा ने बड़े ही जतन से सरोज से करवाई जो बारहवीं पास थी। सरोज के पिता हमेशा शराब के नशे में धुत रहते थे। उसे न तो परिवार चलाने के चिंता थी और न ही घर में जवान लड़कियों की शादी की। शायद यही कारण था जिसके चलते सरोज की माँ ने उसकी शादी शंकर से आनन फानन में करवा दी।
किस्मत का हिसाब किताब अभी शंकर से पूरा नहीं हुआ था। शादी की पहली ही रात को सरोज ने रोते हुये शंकर को बताया की वो किसी और से प्यार करती है और उसी से शादी भी करना चाहती थी मगर परिवार के हालात के चलते वो चुप रही। शंकर ने सरोज से कहा की उसने बहुत बड़ी गलती की है, उसे इस बारे में पहले ही बता देना चाहिए था। मगर सरोज सिर्फ रोती रही। शंकर बिस्तर पर खामोश बैठा रहा। कुछ देर बाद वो बिस्तर छोड़कर जमीन पर दरी बिछा सो गया। अगले रोज उसने ये बात माँ को बताई। माँ के पास भी इसका कोई सीधा सा जवाब नहीं था। उसने शंकर को समझाया की समय बड़ा बलवान होता है, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। अगर इस बात का पता किसी को चला तो समाज में वो कहीं मुंह दिखाने के लायक भी नहीं रहेंगे। माँ ने भरोसा दिलाया की वो सरोज को इस बारे में समझाएगी, वो अभी नादान है उंच नीच समझती नहीं, वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा।
सरोज भले शादी से खुश न थी मगर जाने शंकर क्यों बहुत खुश था। वो गाँव में सभी को बताया करता था की उसकी बीवी गाँव में सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी है। जब भी शहर जाता तो बचाए हुये पैसों से सरोज के लिए किताबे लाता। वो माँ के भरोसे एक नई जिंदगी के सुनहरे सपने सँजो रहा था।
वक़्त गुजरता गया मगर सरोज के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया। माँ के दिलाये भरोसे में वो ताकत थी की शंकर की आस अभी टूटी नहीं थी। उसने कहीं बाहर जाकर कमाने की सोची जिससे सरोज को आगे की पढ़ाई करवा सके और दूर रहकर आपसी मनमुटाव को भुला पाये। उसने सोचा वक़्त के साथ सरोज भी हालात से समझौता करना सीख ही जाएगी। शंकर तो गरीबी के कारण पढ़ नहीं पाया मगर अब उसकी तमन्ना थी की सरोज पढ़ लिख कर जिंदगी में आगे बढ़े। यही सोचकर अपने घर और मामा को काफी दूर छोड़ अब वो परदेश में था।
उसे घर छोड़े अभी कुछ ही महीने बीते होंगे की एक रोज मामा ने फोन पर बताया की उसे जितना जल्दी हो सके गाँव लौटना होगा। मामा से बात कर शंकर को मन ही मन किसी अनहोनी की चिंता सताने लगी थी। घर पहुँचने तक रात घिर चुकी थी। उसने देखा की घर के बाहर लोगों का जमावड़ा लगा था। मामा को देखते ही मानो शंकर को सभी सवालों के जवाब मिल गए हों। लोगों ने उसकी माँ के अंतिम संस्कार की सभी तैयारी कर रखीं थी, बस उन्हे शंकर के आने का इंतजार था।
शंकर ने जब सरोज के बारे में पूछा तो मामा ने नज़र बचाते हुये से उसे एक कागज का टुकड़ा थमा दिया और बताया की ये कागज़ आखिरी वक़्त में माँ के पास मिला था। वो कागज पढ़ने लगा जिसमे लिखा था "शंकर....मैं घर छोड़ कर जा रही हूँ...कहाँ मुझे भी नहीं पता। मेरी भी एक जिंदगी है, मैं मेरी जिंदगी को अपने माँ बाप की मजबूरी की भेंट नहीं चढ़ने दे सकती। शंकर.......तुमने मेरा बहुत खयाल रखा है तुम वाकई एक नेक इंसान हो.....मगर शायद तुम मेरी मजबूरी को समझ सको.......हो सके तो मुझे माफ कर देना.............।"
"बेटा ! मुझे सब पता है.... हम तहसील चलेंगे...बेटा.....वहाँ..........मेरा एक जानकार वकील है, हम..हम .... ... .. ..........उस अहसानफ़रामोश को छोड़ेंगे नहीं ............बेटा तू हिम्मत रखना, मैं......हूँ न तुम्हारे साथ...हौंसला रख........ये बुरा वक्त भी एक रोज बीत जायेगा.....।"
"मामा ........क्या यही जिंदगी है........।" शंकर का गला भर आया था। वो रोया तो ऐसे मानों बरसों से आंसुओं को सीने में कहीं दबाये रखा था।
माँ के अंतिम संस्कार के बाद शंकर लाल को न तो उसके मामा और न ही गाँव वालों ने कहीं देखा था।
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6 comments
बहुत खूब ... लाजवाब, संवेदनशील रचना ...
ReplyDeleteब्लॉग पर पधारने कर उत्साह बढाने के लिए आभार
DeleteYe aapki dil ki ek dastan thi, jo maine mahsus ki.
ReplyDeleteरचना अच्छी लिखी है।
ReplyDeletehttp://urvija.parikalpnaa.com/2011/11/blog-post_28.html
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है
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