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दहेज़


रमेश और सरोज की शादी को लगभग पाँच साल बीतने को आए थे। रमेश को अपने ससुर साहब से दहेज के लेन-देन को लेकर शिकायत थी । रमेश की माँ ने इसी बात की मन में गांठ बांध ली थी। शायद यही कारण था जिसके चलते उसकी सरोज से अक्सर छोटी छोटी बातों पर कहा-सुनी होती रहती थी। एक बार रमेश ससुराल जाकर शांतिनाथ जी को भला बुरा कहने लगा। शांतिनाथ जी ने चुपचाप ही सब कुछ सुन लिया, बिना एक शब्द भी बोले। इसके बाद कभी भी रमेश ने ससुराल की तरफ मुंह तक नहीं किया। सरोज अपने बूढ़े पिता से मिलने अकेली जाती और अकेली ही वापस लौट आती। उसे बहुत दुख होता जब वो अपने गाँव अकेले जाती । अड़ोस पड़ोस के लोग भी तरह तरह की बाते बनाने लग गए थे।

एक रोज़ अचानक ही शांति नाथ जी की मुलाक़ात रमेश से बाजार में हुई। रमेश ने शांतिनाथ जी के प्रति कुछ खास ध्यान नहीं दिया। शांतिनाथ जी ने रमेश से कहा " देखो रमेश बाबू, मुझे पता है की तुम मुझसे नाराज क्यों हो, और ससुराल क्यों नहीं आते हो। लेकिन मैं तुम्हें ससुराल में आने को कतई मजबूर नहीं करूंगा। लोग जो भी बाते बनाते हैं वो में चुपचाप सुन लूँगा। तुम्हारी शादी में मैंने तुम्हें जो सामान दिया वो मैने एक एक पाई जोड़कर मेरी बेटी की खुशी के लिए दिया था, वो कोई दहेज नहीं था। मैंने तुम्हें जो भी दिया वो केवल सामान ही नहीं था, मैंने तुम्हें अपनी बेटी भी दी है। सामान का क्या है बेटा वो तो एक दिन टूटना है। आदमी का प्यार ही होता है जो सदा बना रहता है। मेरी बेटी को मैंने बड़े प्यार से रखा है। तुम्हें अगर कुछ और चाहिए तो मुझे बता देना, मैं ला दूंगा, लेकिन मेरी बेटी खुश रहनी चाहिए। मेरा क्या है...अब मैं ज्यादा दिनों का मेहमान नहीं हूँ, तुम्हें तुम्हारी ज़िंदगी खुशी खुशी बितानी चाहिए। जिंदगी में जब कभी तुम्हें तुम्हारी गलती का एहसास होगा तुम बगैर किसी के समझाये मुझसे मिलने आओगे।" इतना कहकर शांतिनाथ जी आगे बढ़ गए। रमेश काफी देर तक खड़ा जाने क्या सोच रहा था।
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