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साहब ! धरती तो मेरी माँ है


रामप्रसाद सरकारी कार्यालय में लिपिक पद पर कार्यरत था। उसके सभी साथी पदोन्नति पा चुके थे मगर वो आज भी उसी पद पर था जिस पर वो नियुक्त हुआ था। वो कार्यालय में हर काम को मन लगा कर किया करता था मगर बड़े साहब से उसकी कभी बनी नहीं। सच उगलने और साफ सुथरा काम करने की आदत के कारण ही वो कभी किसी जगह पर ज्यादा टिकता नहीं था।

अभी उसे नयी जगह पर आए कुछ ही समय गुजरा था। बड़े साहब उससे सुधरने को कई बार कह चुके थे। एक रोज बड़े साहब ने उसे बुलाया और कहने लगे "देखो रामप्रसाद मैंने तुम्हें कई बार समझाया था लेकिन तुम्हारे कान पर कभी जू तक नहीं रेंगी। क्षेत्रीय कार्यालय के साहब ने तुम्हारे आचरण और कार्य की पूरी जानकारी मांगी है। मैं चाहूँ तो तुम्हारे बारे में बहुत कुछ लिख सकता हूँ............मगर तुम्हारी बूढ़ी माँ का ख़याल कर रुक जाता हूँ। तुम अगर अपनी हरकतों से बाज नहीं आए तो जैसलमेर जाने को तैयार रहना...अब तुम ही बताओ की मुझे क्या लिखना चाहिए ?"

"साहब ! आप वो ही लिखिए जो आप लिखना चाहते हैं। जहां तक तबादले की बात है......तो साहब ! धरती तो मेरी माँ है, फिर जैसलमेर और बाड़मेर में फर्क कैसा.....।"

बड़े साहब ने कुछ देर तक रामप्रसाद की तरफ देखा और बाहर जाने का इशारा किया।

कार्यालय से लौट कर रामप्रसाद घर पहुँचा। उसने देखा की माँ भगवान की पूजा कर चुकी थी। खाट पर सुस्ताते हुये रामप्रसाद ने माँ से कहा " माँ.... अब हम कुछ ही दिनों बाद घूमने के लिए जैसलमेर जाने वाले हैं.............।"
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