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शांति बाई


शांति बाई का पति अब इस दुनिया में नहीं था। वो टेंपू चलाता था। एक रोज टेंपू पलटने से उसकी मौत हो गयी। शांति बारहवीं पास थी। रामप्रसाद से शांति की मुलाक़ात तब हुई जब वो चपरासी की नौकरी के लिए दफ्तर में आई। शायद उसके अच्छे व्यवहार और काम करने की लगन के कारण ही बड़े साहब ने उसे तुरंत नौकरी पर रख लिया। शांति बाई ने रामप्रसाद को बताया कि उसका दुनिया में कोई नहीं हैं। ससुरालवालों ने तीन लड़कियां होने के कारण उसे घर से निकाल दिया बूढ़े पिता पर बोझ नहीं बनना चाहती थी, इसलिए वो शहर में किराये के मकान में रहा करती है।

शांति लगभग पंद्रह दिनों तक काम पर आती रही मगर इसके बाद वो फिर कभी कार्यालय में नहीं दिखी। रामप्रसाद को न जाने क्यों उसकी चिंता सी होने लगी थी।

एक रोज रामप्रसाद बाजार से लौट रहा था। उसने शांति के मकान पर जाकर खैर खबर जानने की सोची। लोगों से पूछते - पूछते आखिरकार रामप्रसाद शांति के मकान पर पहुँच गया। छोटे से कमरे में उसकी लड़कियां पढ़ाई कर रहीं थी। कमरे में बिस्तर के पास शांति बाई के स्वर्गीय पति की फोटो टकी थी।  कमरे में सामान के नाम पर एक संदूक के अलावा और कुछ भी न था। शांति बाई ने जब रामप्रसाद को देखा तो एक बार तो उसके चेहरे के सारे भाव अचानक ही गायब हो गए।  मगर थोड़ी ही देर में उसने खुद को संभालते हुए रामप्रसाद को अंदर आने को कहा। उसने स्टोव जलाना चाहा तो रामप्रसाद ने मना कर दिया।

"बाई ( बहन ) तुम कई दिनों से काम पर नहीं आई। शहर आया था तो सोचा तुम्हारी खैरियत पूछता चलूँ..... सब ठीक तो है न...।" रामप्रसाद ने पूछा।

"क्या बताऊँ भाई साहब आपको.....अब मैं काम पर नहीं आऊँगी। मैं कालू ठेकेदार के यहाँ नमक के खेतों में मजदूरी करने जाती हूँ। काम धूप का है, पूरे दिन धूप में खड़े होकर नमक को सुखाना पड़ता है पढे लिखे लोगों की बात दूसरी है। वहाँ तो हरदम पंखे चलते रहते हैं...।"

"मगर तुमने दफ्तर का काम छोड़ा ही क्यों.....अगर बात पैसे की है तो हम सब मिलकर साहब से बात करेंगे।"

बात पैसे की नहीं......वो.......एक रोज बड़े साहब ने मुझे घर पर काम करने के लिए बुलाया था। घर पर उन्होने मेरे साथ ...............अब रहने दो.......भाई साहब, मेरी मानेगा भी कौन। मेरी ही किस्मत खराब है....किसी का क्या दोष......आज बबली के पापा होते तो मैं यूँ दर दर न भटकती। भले ही कालू ठेकेदार कम पैसा देता है, पूरे दिन धूप में काम करवाता है,  मगर वहाँ मुझे कोई गंदी नजर से तो नहीं देखता।"   बाई ने बहते आंसुओं को पल्लू से पोंछते हुये जवाब दिया।

"बाई तुम मुझे भाई कहती हो....मैं तुम्हारी नौकरी कहीं अच्छी जगह लगवाने की कोशिश करूँगा.....तब तक तुम ये दो हजार रुपये रख लो......ये कोई एहसान नहीं जब तुम्हारे पास हों तब लौटा देना...देखो, मुझे गलत मत समझना.....।"

शांति बाई ने पैसे लेने से साफ़ मना कर दिया। आखिर उसकी जिद के आगे हारकर रामप्रसाद भी लौट आया। कुछ ही दिनों में रामप्रसाद ने बाई के लिए एक अच्छी जगह काम ढूंढ लिया। रामप्रसाद बाई को काम के बारे में बताने जब उसके मकान पर पहुँचा तो पड़ौसियों से पता चला की बाई काम की तलाश में शहर छोडकर कहीं जा चुकी थी।

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