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अपराधबोध


नीरज कालेज में पढ़ता था। कोलेज़ की छुट्टियाँ हो चुकी थी। वो इस बार की छुट्टियाँ गाँव में ही बिताना चाहता था। गाँव जाने को स्टेशन पर पंहुचा। ट्रेन  में बहुत भीड़ थी। नीरज को काफी उठापटक के बाद आखिरकार सीट मिल गयी। कुछ ही देर में एक बुजुर्ग एक बक्सा लेकर चढ़ा। वो नीरज के पास ही आकर खड़ा हो गया। उसने नीरज से कुछ भी नहीं कहा मगर नीरज कुछ असहज हो चला था। वो अखबार निकाल कर पढ़ने लगा।

रात घिर चुकी थी। ट्रेन में रौशनी जल चुकी थी। नीरज ने देखा की वो बुजुर्ग बक्से को सीट बना उस पर बड़े ही मजे से दरवाजे के पास बैठा था। अगले स्टेशन पर ट्रेन रुकी। एक सज्जन उसी डिब्बे में आया और नीरज को टिकट दिखाकर कहने लगा की उसे सीट खाली करनी होगी क्योंकि जिस सीट पर वो बैठा है वो उसके नाम से आरक्षित है।

नीरज ने चारों तरफ नजर दौड़ाई मगर एक भी सीट खाली न थी। बुजुर्ग के पास खड़ा होने के सिवा अब उसके पास कोई चारा न था।

"बेटे कब तक खड़े रहोगे...मेरा बक्सा बहुत मजबूत है, तुम भी बैठ जाओ।" बुजुर्ग ने नीरज से कहा। नीरज बुजुर्ग के बक्से पर बैठ तो गया मगर उसका अपराधबोध उसे लगातार बेचैन किए जा रहा था । नीरज मन ही मन सोच रहा था कि उसने बुजुर्ग को सीट पर बैठने को एक बार भी नहीं कहा और बुजुर्ग ने तुरंत ही उसे बैठने को बक्से पर आधी जगह दे दी।

"यूं चुपचाप कब तक बैठे रहोगे.........इस बक्से पर बैठ कर नींद तो आने से रही। अच्छा बेटा बताओ, तुम कहाँ तक जाओगे?"
बुजुर्ग के साथ बातों ही बातों में नीरज को पता ही नहीं चला कि कब उसका स्टेशन आ गया।
"बाबा.....मैं आपके साथ बस यहीं तक जाऊंगा, आपका स्टेशन आने में अभी काफी वक़्त लगेगा, अच्छा राम राम।
आज नीरज एक अपरिचित व्यक्ति से बहुत कुछ सीख कर घर जा रहा था।

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